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देशभक्ति का झूठा उन्माद

मेरा अपना नज़रिया
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देशभक्ति का झूठा उन्माद

डॉ० हृदेश चौधरी

कन्हैया कुमार के जेएनयू प्रकरण की आग अभी पूरी तरह से ठंडी भी नहीं हुई थी कि तब तक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एक चिंगारी और उठी जब गुरमेहर कौर नाम की एक छात्रा का बयान सोशल मीडिया पर गरमा गया जिसमें उसने अपने पिता की शहादत के लिए पाकिस्तान को नहीं बल्कि युद्ध को ज़िम्मेदार ठहराया. सोचने वाली बात यह है कि देश का बौद्धिक स्तर क्या इतने गर्त में चला गया कि एक स्टूडेंट के सामान्य कथन को भी सियासी चश्में से देखा जाने लगा है और फिर सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनलों तक की बहस में राजनैतिक विश्लेषक और पार्टियों के प्रवक्ता भी राष्ट्रवाद और गैरराष्ट्रवाद की परिभाषा गढ़ने लगते हैं.

राष्ट्रवाद की दुहाई देने वाले पंथ और संघ, पढ़ने वाली जगह को इस तरह बेतरतीब ना होने दे. लाठी-डंडों से राष्ट्र निर्माण नहीं होता है. राष्ट्र निर्माण की परिकल्पना तो निष्पक्ष सोच, नए विचार एवं  तर्क वितर्क   से ही की जा सकती हैं. और फिर विश्विद्यालय तो वो बगीचा है जहाँ से हर साल राष्ट्रभक्ति से लवरेज  हजारों छात्र रुपी पौधों का अंकुरण होता है, जिसकी मदद से उनमे अपने पक्ष को मजबूती से रखने का हौसला आ जाता हैं. यानि विचारशील मनुष्य का सबसे बढ़ा गुण तर्कशक्ति है जो हर तरह के विवाद की स्थिति में उसको संवाद से समन्वय की ओर ले जा सकती है. ये शत प्रतिशत सच है कि अपनी मातृभूमि पर जन्म लेने वाला कोई भी  नौजवान देशद्रोही हो ही नहीं सकता क्यूंकि देशभक्ति एक ऐसी भावना है जो स्वत: ही होती है, जो बिना वन्देमातरम बोले भी हमारे अन्दर जिंदा रहती है. लेकिन जब मामला देशभक्ति के झूठे उन्माद का हो तो आपको कभी भी देशद्रोह की श्रेणी में डाला जा सकता है. उदाहरण के तौर पर देशभक्ति का प्रमाणपत्र बाँटने वालों में से 20 फीसदी भी ऐसे न होगें जो राष्ट्रगान एवं राष्ट्रगीत को सही से गा सकें और उसे लिख सकें.

हम सभी आज़ाद मुल्क में रहते हैं जहाँ हर किसी को अपनी राय रखने का पूरा अधिकार हैं.उसके बावजूद भी छात्रा गुरमेहर कौर के एक साधारण से वक्तव्य को सोशल मीडिया में भद्दे तरीके से निशाना बनाया गया, आखिर क्यों? क्या छात्रा का यह कमेंट देश के लिए इतना घातक था कि उसे रेप करने जैसी धमकियों का सामना करना पड़ा और फिर उसके समर्थन में बॉलीवुड, एवं महिला आयोग से लेकर खेल जगत की तमाम हस्तियों को उतरने पर मजबूर होना पड़ा. इस ज़ुबानी जंग में हरियाणा सरकार के मंत्री अनिल विज ने तो यहां तक अपना राष्ट्रवाद प्रकट कर दिया कि डीयू छात्रा के अभियान का समर्थन करने वाले लोग पाक समर्थक र्हैं. और गृह राज्यमंत्री किरेन रजीजू के बयान ने तो पूरा मामले को गरमा कर रख दिया जब उनहोंने कहा था कि डीयू की छात्रा गुरमेहर कौर के मस्तिष्क को कुछ लोग प्रदूषित कर रहे हैं. इन बयानों हमारा मंतव्य सिर्फ इतना है कि क्या ऐसी बयानबाज़ी करने वाले ही राष्ट्रभक्त हैं जो इन राष्ट्रभक्तों को देश के अन्दर कोई और मुद्दे दिखाई नहीं देते जिन पर चिंतन एवं मंथन कर एक सच्चे राष्ट्रभक्त होने की परिभाषा गढ़ी जा सकती है  और अगर वो ऐसा नहीं कर सकते तो फिर राष्ट्रवाद का यह झूठा उन्माद क्यों? मेरी नज़र में तो सबसे बढ़े देशद्रोही ऐसे लोग ही हैं जो विवाद को तर्क के आधार पर निपटाने के बजाय अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए उलटे सीधे बयान देकर देश का अमन चैन ख़राब करते हैं.

विवादित बयानबाजी कर राष्ट्रवाद का झूठा ढोंग रचने वाले उन सियासी रहनुमाओ को इतना भी भान नहीं है कि राष्ट्र के विकास के लिए देश के अन्दर शांति एवं सदभाव का वातावरण होना बहुत जरूरी है क्योकि संगठनों को आपस में लड़वाने से राष्ट्र कमजोर होता है. देश के नेता एवं अफसर तक इस बात को समझते एवं जानते ही होंगे कि भारतीय संस्कृति का मूल तत्त्व समन्वयवादी दृष्टिकोण है. इसके बावजूद इसमें विश्वास ना रखते हुए उनका छोटे छोटे वक्तव्यों एवं छात्र संगठनों की आपसी झडपों में उलझ जाना उनकी गैर-दूरदर्शी सोच का परिचायक है. उदाहरण के तौर पर यह बताना बेहद जरूरी है कि विश्वविध्यालय में पढ़ रहे छात्र संगठनों के टकराव के दौरान एक टिप्पणी पर पूरा देश गरमा जाता है. और फिर वही छात्र पारिवारिक पृष्ठभूमि में यदि नास्तिक होकर पूजा पाठ करने से विरत रहता है तो क्या उसके माँ बाप उसे धर्म विरोधी कह कर उसको देश के हवाले कर देंगे, नहीं ना ? बल्कि घर के सदस्य उसको समन्वयवादी सोच रखते हुए उसे समझाने का प्रयास करते है, तो फिर विश्वविध्यालय के प्रोफ़ेसर समन्वयवादी दृष्टिकोण का पालन ना करते हुए राजनैतिक नजरिये से क्यों जोड़ते हैं? क्या गुरु भी राजनेताओं के हाथ बिक चुके हैं कि जिसको जितना लाभ मिलता है वो उसके ही समर्थन में खड़ा हो जाता हैं स्वार्थ सिद्दी का कोलाहल इतना ना बड़ जाय कि हम देश हित की परिपाटी को ही भूल जाय. ऐसी विवादित राष्ट्रवादिता देखकर दीनदयाल उपाध्याय जी का कथन याद आता है कि ‘‘व्यक्ति की भांति राष्ट्र की भी अपनी आत्मा होती है’’ उनके इस कथन मेरा यही कहना है कि राष्ट्रवाद का झूठा चोला पहनने वालों राष्ट्र की आत्मा को इतना घायल मत करों कि देश की बेटियां ही खामोश हो जायें.

मेरे अंतर्मन में अब कुछ ऐसे अनसुलझे ख्यालात हैं जो हर वक़्त मुझे उद्देलित करते कि इस देश की नौजवान पीढ़ी को संस्कारित करने का दायित्त्व आखिर किसके ऊपर है? इस कथित राष्ट्रवादिता और झूठे उन्माद के बीच मेरी ये पंक्तिया जन्म लेती हैं कि..

शिक्षा के मंदिरों में पनपता ये कैसा उन्माद है,

सियासी चश्मे से झांकता ये छदम राष्ट्रवाद है .

(लेखिका स्वतंत्र विचारक एवं राजनीतिक टिप्पणीकार हैं.)

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