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इतनी बदकिस्मत क्यों है आधी आबादी

मेरा अपना नज़रिया
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इतनी बदकिस्मत क्यों है आधी आबादी

डॉ० हृदेश चौधरी

समय चक्र चलता रहा और स्त्री पृथ्वी सी घूमती रही. रात का फेरा पूरा होने के बाद सुबह की किरण इस उम्मीद के साथ रोशन होती रही कि कभी तो आधी आबादी खुद को महफूज समझेगी. नियति तो देखिये ब्रह्मा के बाद सृष्टि सृजन में यदि किसी का योगदान है तो नारी का ही है, अपने जीवन को दांव पर लगाकर एक जीव को जन्म देने का साहस ईश्वर ने केवल महिला को ही प्रदान किया है. कितने ताज्जुब की बात है कि वो अपने अस्तित्व की रक्षा की गुहार उन पुरुषों से करती है जिसकी वह जननी रही है. प्रथम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मनाये जाने के लगभग सौ से ज्यादा वर्षों बाद भी हम उसी उद्देश्य को लेकर चल रहे हैं जिसकी शुरुआत प्रथम महिला दिवस से हुयी जिसका एकमात्र लक्ष्य ही था कि हमको ‘’महिलाओं पर बढ़ते अत्याचारों को रोकना’’ है यानि कि हम आज भी उसी चौराहे पर खड़े हैं जहाँ इसका क्रियान्वन दूर दूर तक दिखाई नहीं देता है, तरक्की हुयी तो सिर्फ इतनी कि आज हर गली नुक्कड़ चौराहे पर एक बलात्कार की घटना देखने और सुनने को मिल जाती है सही मायने में महिला दिवस तब ही सार्थक होगा जब महिलाओं को शारीरिक व् मानसिक रूप से सम्पूर्ण सुरक्षा और आजादी मिलेगी. जहां उन्हें कोई प्रताड़ित नहीं करेगा, जहाँ कन्या भ्रूण हत्या नहीं की जायेगी, जहाँ उसके साथ बलात्कार नहीं होगा, जहां उसे बेचा नहीं जाएगा, बल्कि समाज के हर महत्तवपूर्ण फैसले में उसके नजरिये को भी महत्त्व दिया जाएगा. सार्थकता तब होगी जब कोई महिला अपने नारीत्व पर गर्व करे ना कि उसको पश्चाताप हो कि काश वह एक लड़का होती.

नारी की महत्ता का बखान जितना किया जाय, उतना कम है. इतनी सशक्त नारी को पुरुषों की मानसिकता के कारण जगह जगह अपमानित होना पड़ता है सबसे बड़ी बिडम्बना तो यह है कि वह अपने घर में भी असुरक्षित है. आधी आबादी शक्ति है. बुनियाद है. घर की छत को सँभालने वाली दीवार है लेकिन फिर भी आज हम जगह जगह बेटियों को बचाने के लिए रैलियां निकाल रहे हैं क्यों? अपने हक की मांग कर रहे हैं क्यों? अपनी सुरक्षा के लिए हो – हल्ला कर रहे हैं क्यों? कही अकेले जाना है तो दस बार सोचना पड रहा है क्यों? हर दिन डर बना रहता है बेआबरू होने का क्यों? जिस सृष्टि का सृजन वह करती है वही क्यों के कटघरे में खड़ी है, आखिर इतनी बदकिस्मत क्यों है यह आधी आबादी? बदकिस्मती का आलम तो यह है कि आज़ादी के 68 वर्ष बीत जाने के बाद भी महिलाएं का शोषण बंद नही हुआ, हमेशा वायदों से छला गया, भावनाओं में धोखा मिला, अधिकारों के मामलों में छदम सांत्वना  दी गयी. महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं इतनी आम हो गयी कि ख़बरों की सुर्ख़ियों तभी बनती हैं जब बहुत ही घिनौनी घटना प्रकाश में आती हैं और फिर उसके बाद शुरूआत होती है रहनुमाओं के बेतुके बयानों की. जो कि उस समय अपमान की आग में घी का काम करते हैं. उस समय ऐसा लगता है जैसे कि शायद ये आखिरी घटना हो लेकिन हर बार की तरह यह उम्मीद गलत साबित होती है. सच तो यह है कि देश में महिला होकर जीवन जीना इतना आसान नहीं है क्योकि हमारा समाज अब भी पुरानी परम्पराओं और दकियानूसी विचारधारा में जकड़ा हुआ है और तो और महिलाएं खुद फर्क करती हैं बेटों और बेटियों में. इतनी बदकिस्मत हैं भारत की आधी आबादी जिसको जन्म लेने से पहले ही माँ की कोख में मार दिया जाता हैं और अगर जन्म ले भी लेती हैं तो जीवन भर उसे एहसास कराया जाता है कि माँ बाप के लिए बोझ है ऐसे में क्या फायदा सुरक्षा, सम्मान और सशक्तिकरण जैसी बड़ी बड़ी बातें करने का, जब आधी आबादी के अपमान और उसमे साथ भेदभाव से जुड़े हर सवाल देश की संसद के लिए बेमानी और महत्त्वहीन रहते है. कथित बुद्धिजीवी जो एक एक मुद्दे पर तो कई कई दिन तक चर्चा गर्म रखते है फिर चाहे सहिष्णुता का मुद्दा हो, रोहित वेमुला या फिर जेएनयू प्रकरण हो जिसको द्रोपदी के चीर की तरह लम्बा खींचते रहते हैं. वही इससे इतर ऐसी घटनाओं पर उनका मौन पूरे देश को खलता है. वो तो शुक्र हो मीडिया का जो ऐसे मुद्दों को उठाकर जन आन्दोलन का रूप दे देती है. चाहे फिर नयना साहनी का तंदूर काण्ड हो या फिर पूरे भारत वर्ष को शर्मसार करने वाला दिल्ली का निर्भया कांड हो. कभी वहशी दरिंदों के इनकार को अपने चहरे पर तेज़ाब झेल रही नारी शक्ति का मामला हो, तो कभी इस देश में देवी की तरह पूजे जाने वाली मात्रशक्ति को मंदिर में प्रवेश निषेध का मुद्दा हो, मीडिया ने ही जन भावनाओं को अपने आक्रोशित स्वर दिए हैं.

विचारणीय प्रश्न ये है कि महिला दिवस का ढिंढोरा पीटते हुए भी हमको अब सौ वर्ष से अधिक हो गए हैं किन्तु अभी तक हम समाधान की पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ पाए हैं, नारी के वर्चस्व की दुहाई देने वाली यह सियासत भी महज वोट बैंक के रूप में महिलाओं को सुनहरे सपने बेचती है किन्तु जब ऐसे दरिंदों को सजा देने की बारी आती है तो कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका तक पंगु नजर आती है. महिलाओं को सुरक्षा और शिक्षा देना हर सरकार का नैतिक दायित्व हैं किन्तु अपने इन मूल अधिकारों से वंचित नारी कैसे महिला दिवस को अपना सम्मान और गौरव का दिन मान ले इस बारे में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.

(लेखिका आराधना संस्था की महासचिव हैं)

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