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राम “नीति” या राज “नीति”

मेरा अपना नज़रिया
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राम नीति या राजनीति”

धर्म, न्याय और नीति के पर्याय श्री राम सुख सम्रद्धि के लिए मंदिर-मंदिर और घर-घर पूजे जाते हैं मर्यादित आचरण के लिए स्मरण की जाने वाली इस अलौकिक शक्ति से समूचा विश्व आलोकित है उन्ही मर्यादा पुषोत्तम “राम” के नाम पर पिछले कुछ सालों से इस देश की सियासत अमर्यादित हो रही है. राम की नीति को राज “नीति” बनाकर अपनी निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए जिस सत्ता की कुर्सी को हथियाने के लिए चाल चली जा रही है उस सियासत को शायद ये ज्ञात नहीं है कि उन्ही श्री राम ने सत्ता की कुर्सी का परित्याग करके चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया था.

मुगलकाल से ही विवादित इस तपस्थली अयोध्या को ना जाने कितने लोगों ने छला है हिन्दू मुस्लिम के नाम पर इस देश कि सियासत ने मंदिर मस्जिद के मुद्दे को अपने वोटों में तब्दील किया है बार बार आपसी वैमनस्यता फैलाकर व्यापक समरसता एवं सौहार्द को रक्तरंजित किया है. मंदिर निर्माण का संकल्प अब किसी धार्मिक आस्था  का प्रतीक नहीं रहा बल्कि इस मुद्दे को मुट्ठी भर रहनुमाओं ने अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने का हथियार बना लिया. ऐसे धर्म के नाम पर उन्माद फैलाने वाले राजनैतिक आकाओं को शायद देश की बदहाल तस्वीर नजर नहीं आती जहाँ तमाम युवा बेरोजगार हैं, सुलगते जलते मकान हैं, सड़क पर सोते बचपन है, जगह जगह बेआवरू होती महिलाएं हैं इनमे से अगर एक मुद्दे पर ही ईमानदारी से इस देश राजनीति अपना कर्तव्य निभा ले तो शायद इससे बडी राम की पूजा कोई नहीं होगी. जिस राम की कृपा पाने के लिए इतनी जद्दोजहद की जा रही है वो राम तो हर गरीब की झोपड़ी में निवास करता है शबरी के झूठे बेरों में जिसकी समरसता जगजाहिर है उस राम के नाम पर मंदिर निर्माण के वजाय यदि हर गरीब को छत मिल जाए तो उससे निर्मित वो मकान लाखों मंदिर का ही स्वरूप होंगे. पर हकीकत इससे परे है हमारे रहनुमा इस मुद्दे को हमेशा जीवित रखना चाहते हैं ताकि इसकी सुलगती आग में सत्ता की रोटियों को जब चाहे सेक लिया जाय. उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि इस खूनी यज्ञ में कौन स्वाह हुआ, किसकी मांग उजड़ी, किसकी गोद सूनी हुयी. धार्मिक उन्माद के चलते 6 दिसम्बर १९९२ को हुयी उस घटना को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता जिसमे 2000 से अधिक लोग इस साम्प्रदायिक आग का शिकार हुए. आज भी इस तिथि को कभी शौर्य दिवस और कभी काला दिवस मनाकर कुछ मजहबी ताकते अपनी स्वार्थ सिद्धि का प्रयास करती हैं लेकिन अब आम जनमानस उनकी इस मंशा से भलीभांति परिचित हो चुका है और अब उसे राम नीति के नाम पर राज नीति समझ आने लगी है.

जब भी चुनावी शंखनाद होता है ये सियासत राम मंदिर मुद्दे को अपने वोटो के धुर्वीकरण का आलम्बन बना लेती है. इसी को मद्देनजर एक बार फिर प्रदेश की राजनीति गर्म होने जा रही है, फिर से लोगों के घरों पर चरण पादुका और शिलाओं के पूजन के लिए दस्तक होगी, वही छदम धर्मनिरपेक्षी ताकतों के फतवे जारी होंगे यानि मंदिर मस्जिद के नाम पर अमन और र्चैन की फिजाओं में नफरतों का जहर घोला जाएगा.फिलहाल अखबारों की सुर्खियाँ बनी इन ख़बरों से इस बात का अंदाजा तो होने लगा है कि जिस तरह से देश के सवा लाख स्थानों पर एक साथ मंदिर निर्माण की हुंकार भरी जा रही है वह चुनावी बिगुल की शुरूआत में धार्मिक आस्था का बिम्ब नहीं बल्कि 56 इंची सीने की फीकी पड़ती चमक को पोलिस करने की कवायद मात्र है. इस व्यूह रचना में शहादत देने के लिए अभिमन्युओं की अभी से जारी हो चुकी है. ऐसी परिस्थितिओं में अब देश के सच्चे नागरिकों को ही योगी राज कृष्ण की भूमिका में आना ही पड़ेगा.

राम के नाम पर सियासत करने वाले मठाधीशों और रहनुमाओं को ध्यातव्य होना चाहिए कि सभी धर्मों से ऊपर होना चाहिए राष्ट्रधर्म जो कि हमें अध्यात्म की ओर ले जाता है ना कि साम्प्रदायिकता की ओर. अपने देश की सांस्कृतिक विरासत में निहित है “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना. यहाँ ऋषि मुनियों ने हर समस्या का समाधान के लिए प्रयास किया है ना कि इस देश को अलगाववाद की भट्टी में झोंका है. माना कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण जहाँ हिन्दुओं की आस्था एवं स्वाभिमान से जुड़ा है वही ये निर्माण  हमारी संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए अनिवार्य भी है. लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि जो धार्मिक स्थल शान्ति का पैगाम देते हो वही शान्ति भंग करने का कारण बन जाय. राजनैतिक परिदृश्य में अब ये मुद्दा महज सियासत करने वालों की जागीर बनता जा रहा है चंद मठाधीश एवं राजनैतिक लोग जानबूझकर ऐसी बयानबाजी करते हैं ताकि ये मुद्दा सुर्ख़ियों में आये और वे अपने मंसूबों में सफल हो सके. पिछले दिनों ट्वीटर पर एक टिप्पड़ी चर्चा का विषय बनी कि “हम ये पैकेज ऑफ़र करते हैं कि वो हमें तीन मंदिर डे दें और बाकी मस्जिदे अपने पास रख ले”, आखिर ये कैसी सौदेबाजी है जिसमे भगवान् को भी पैकेज में बांटा जा रहा है. मंदिर की घंटियों और मस्जिद के अजानों की स्वर लहरियों में ये कौन है जो जहर घोलने की कोशिश कर रहा है आम जनमानस इस बात से भलीभांति परिचित हो चुका है. कुल मिलाकर आशय यह है कि मंदिर निर्माण को सियासी चश्मे से न देखा जाय, ये जनता की आस्था का सवाल है इसलिए समाज की आम सहमति का होना लाजिमी है और बातचीत के जरिये समाधान निकालना चाहिए. अयोध्या मंदिर का पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट में है और कोर्ट से हटकर राम मंदिर एवं बाबरी मस्जिद पर विवादित बयानबाजी करना अनुचित है. पूरे देश को अपनी न्याय व्यवस्था पर विश्वास बनाए रखकर गरिमामयी भूमिका का परिचय दे.

डॉ० हृदेश चौधरी

आगरा

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