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किसके दिल की धड़कन बनेगी दिल्ली

मेरा अपना नज़रिया
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किसके दिल की धड़कन बनेगी दिल्ली

डॉ० ह्रदेश चौधरी

“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।” महाकवि दिनकर की ये पंक्तियाँ कुछ माह पूर्व देश की राजनीति का प्रतिबिम्ब बन गईं और वर्षों तक इस देश पर सियासत करने वाली काँग्रेस पार्टी हाशिये पर जाकर सिमट गयी । जनता की गूंज से दिल्ली का ताज खास से आम हो गया था किन्तु आम आदमी के सपने अधूरे रह गए और जिस आम को खास बनने की चाह थी वो देश में आई परिवर्तन की लहर में कही गुम सी हो गयी थी ।

गत सप्ताह ऐतिहासिक रामलीला मैदान से चुनावी बिगुल बजा और तकरीबन एक वर्ष से राजनैतिक अनिश्चतता से गुज़र रही दिल्ली अंतत: चुनावी रणक्षेत्र में कूद ही पड़ी। आखिरकार सिसकती, कराहती और अपने वजूद के लिए छटपटाती दिल्ली का दिल कौन जीत पाएगा ये तो अभी  भविष्य के गर्त में है। किन्तु राजनैतिक गलियारों में यह सियासी सवाल ज़रूर उठ खड़ा हुआ है कि आखिर दिल्ली का ताज किसके सिर सजेगा और कौन उस पर राज करेगा। कमोवश यही कशमकश  दिल्ली के हर वाशिंदे के जेहन में भी है। इस दौरान देश की सियासत में भी काफी बदलाव आया है।  एक वर्ष पूर्व जो काँग्रेस इस सियासत की केन्द्रबिन्दु होती थी और जिसके शासन काल में दिल्ली ने विकास के कई सोपानों को छुआ आज वह राजनैतिक घरातल पर स्वयं को बौना महसूस कर रही है। राजनैतिक घटनाक्रमों में इतनी तेज़ी से बदलाव आया कि देश की सियासत मोदी जी के इर्द गिर्द सिमट कर रह गई।

एक करिश्माई नेत्रत्त्व की बाट जोहती जनता को मोदी जी में वो आशा की किरण नज़र आई जो उसकी उम्मीदों पर खरा उतर सके, उसी आस में उसने पूर्ण बहुमत से उनकी ताजपोशी कर दी। लोक सभा में जीत का परचम हालाकिं विभिन्न राज्यों में भी जारी रहा जो कि मोदी जी की लोकप्रियता का गवाह बना इसके बावजूद भी दिल्ली के चुनावों को समय  दर समय  टालना कहीं न कहीं भाजपा सरकार की घबराहट और बेचैनी परिलक्षित होती रही इन्हीं अनिश्चितताओं के भँवर में आखिरकार सरकार को ये फैसला लेना पड़ा कि अब उनके लिए दिल्ली की जनता को जवाब देना मुश्किल होगा। अब देखना यह है कि चुनावी शंखनाद में उसका प्रबल प्रतिद्विंदी कौन होगा § एक वर्ष के अंतराल में देश की राजनीति में उथल-पुथल मचाकर एक महानायक के रूप उभरे अरविंद केजरीवाल या फिर दिल्ली में विकास की गंगा बहाने वाली काँग्रेस पार्टी। अपने वादों को पूरा करने के लिए स्पष्ट बहुमत की  तलाश में भटकती आप पार्टी में यदि फिर से जनता ने अपना विश्वास जता दिया तो ये देश की राजनीति में फिर से बेमिसाल नजीर होगा और कहीं न कहीं क्षेत्रीय दलों को संजीवनी प्रदान करेगा जो आज आत्मविश्वास  से लवरेज भाजपा के सम्मुख खुद को बेदम महसूस कर रही है। ज़ाहिर है कि इस बार काँग्रेस सत्ता की दौड़ में सबसे पीछे खड़ी है  और केवल आप पार्टी ही मजबूती से भाजपा के बेड़े को रोकने के लिए अपना पूरा दमखम लगा रही है। बनारस में जाकर मोदी को ताल ठोकने वाले अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी एक बार पुन: जंग के मैदान में हैं। जहां एक ओर स्वयं दिल्ली में सत्तानशी नरेंद्र मोदी हैं। वहीं दूसरी ओर दिल्ली राज्य के सिंहासन को ठुकराकर उनकी जनता से पुन: जनादेश लेने का हौसला रखने वाले अरविंद केजरीवाल हैं।

बिजली कंपनियों की लूटमार को खत्म करने का मुख्य चुनावी मुद्दा लेकर आम आदमी पार्टी कही न कही अपने प्रतिद्वंदी दलों को बेकफुट पर जाने को मजबूर कर रही है। हालांकि आम आदमी पार्टी के

प्रमुख चेहरे जो कि लोकसभा चुनाव से पहले बेहद संगठित नजर आ रहे थे वो मोदी जी की चुनावी जीत के बाद कही बिखर से गए। आज आप पार्टी अरविंद केजरीवाल के चेहरे पर ही सिमट चुकी है उसके क्षत्रप अपनी ढपली अपना राग अलापकर पार्टी की कही जगह किरकिरी करा चुके हें। वही विधान सभा चुनाव में डॉ हर्षवर्धन के चेहरे पर चुनाव लड़ने वाली भाजपा सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद सरकार बनाने में असफल रही थी, बावजूद इसके लोकसभा की सातों सीटों पर रिकॉर्ड जीत लेकर उसने सभी दलो का सफाया कर दिया। आज डॉ हर्षवर्धन केंद्र सरकार में केबिनेट मंत्री हें और कभी आप पार्टी का प्रमुख चेहरा रही किरन बेदी पर ही भाजपा इस दांव को खेलने जा रही है । मुक़ाबला बेहद दिलचस्प होगा इसमे कोई दो राय नहीं है। दिल्ली की राजनीति में पिछले 15 वर्षों से एकक्षत्र राज्य करने वाली कॉंग्रेस पार्टी बेशक मुख्य मुकाबले से बाहर है किन्तु उसकी भूमिका इस चुनाव में बहुत ही महत्त्वपूर्ण होगी। भाजपा के कदम रोकने के लिए वो केजरीवाल को अपना अंदरूनी समर्थन भी दे सकती है और यदि ऐसा हुआ तो एकबार फिर से चौकाने वाले परिणाम आ सकते हें।

अब देखना ये है कि दिल्ली की जनता कितनी सूझबूझ से अपने विवेक का इस्तेमाल करती है और वास्तविक धरातल पर जाकर उनके घोषणा पत्रों से प्रभावित होती है क्योकि उसका पिछला अनुभव बेहद कटु रहा है और दूध का जला छाछ भी फूक फूक कर पीता है। साथ ही उसके सम्मुख केजरीवाल का 49 दिन का कार्यकाल है वही मोदी सरकार द्वारा 200 दिन में पूरे किए वादों का आंकलन भी है। राजनैतिक परिदृश्य से इस वक़्त गायब दिल्ली में कांग्रेस के द्वारा बहाई हुयी विकास की गंगा भी उसके समक्ष है। इसलिए उसके कंधों पर स्पष्ट बहुमत वाली सरकार चुनने का मानसिक दबाव है।

आखिरकार स्पष्ट बहुमत की दरकार इस वक़्त दिल्ली में भाजपा और आप दोनों ही पार्टियों को है और कॉंग्रेस अपनी भूमिका से इसे त्रिकोणीय बनाने का भरसक प्रयास करेगी। बिना स्पष्ट बहुमत के  एक वर्ष से बनवास झेल रही दिल्ली की जनता का रुख क्या होगा यह तो अगले माह होने वाले चुनाव में ही पता चलेगा पर दिल्ली की इस भंयकर सर्दी में चुनाव की सरगर्मी से जनता वादों की तपिश महसूस करेगी। ये सियासी ऊँट किस करवट बैठेगा और कौन किसकी छती पर मूंग दलेगा ये तो इस दिलचस्प मुकावले में देखने को मिलने जा ही रहा है साथ ही दिल्ली के तख़्तोताज पर कभी गलबहियाँ डाले किरनवेदी और केजरीवाल में से कौन किस्मत का धनी होगा यह समय बताएगा।

लेखिका आराधना संस्था की महासचिव हैं।

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